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Class 10th Economics BSEB | बिहार बोर्ड अर्थशास्त्र पाठ 2 व्याख्या

आज के इस पोस्ट में हमलोग कक्षा 10वीं अर्थशास्त्र का पाठ 2 ( राज्य एवं राष्ट्र की आय ) का सारांश को देखने वाले है। Class 10th Economics BSEB

Class 10th Economics BSEB | बिहार बोर्ड अर्थशास्त्र पाठ 2 व्याख्या

राज्य एवं राष्ट्र की आय

आय- जब कोई व्यक्ति किसी प्रकार का शारीरिक अथवा मानसिक कार्य करता है और उस कायों के बदले में जो पारिश्रमिक मिलता है, उसे उस व्यक्ति की आय कहते हैं।

राष्ट्रीय आय- किसी देश में एक वर्ष की अवधि में उत्पादित सभी वस्तुओं एवं सेवाओं के मौद्रिक मूल्य के योग को राष्ट्रीय आय कहा जाता है ।

फॉर्मूला के रूप में

Y=C+I

 जहाँ,
Y = राष्ट्रीय आय (National Income)
C = उपभोग व्यय (Consumption Expenditure)
I = विनियोग (Investment)

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राष्ट्रीय आय की धारणा

  • सकल घरेलू उत्पाद(Gross Domestic Product)
  • कुल या सकल राष्ट्रीय उत्पादन (Gross National Product)
  • शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन(Net National Product)

सकल घरेलू उत्पाद (Gross Do mestic Product) – किसी देश में किसी दिए हुए वर्ष में वस्तुओं और सेवाओं की जो कुल मात्रा उत्पादित की जाती है, उसे सकल घरेलू उत्पाद (GDP) कहा जाता है ।

कुल या सकल राष्ट्रीय उत्पादन (Gross National Product)- किसी से एक साल के अन्तर्गत जितनी वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन होता है उनके मौद्रिक मूल्य कुल राष्ट्रीय उत्पादन (GNP) कहते हैं ।

यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि कुल राष्ट्रीय उत्पा (GNP) तथा सकल घरेलू उत्पादन (GDP) में अन्तर है ।

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कुल राष्ट्रीय उत्पादन का पता लगाने के लिए सकल घरेलू उत्पादन में, देशवासियों विदेशों में उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को जोड़ दिया जाता है तथा विदेशियों देश में उत्पादित वस्तुओं के मूल्य को घटा दिया जाता है।

शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन (Net National Product)- कुल राष्ट्रीय उत्पादन को । करने के लिए हमें कुछ खर्च करना पड़ता है । अतः, कुल राष्ट्रीय उत्पादन में से इन खच्चे, घटा देने से जो शेष बचता है वह शुद्ध राष्ट्रीय उत्पादन (NNP) कहलाता है।

भारत का राष्ट्रीय आय-ऐतिहासिक परिवेश

भारत में सबसे पहले सन् 1868 ई० में दादा भाई नौरोजी ने राष्ट्रीय आय का अनुमान लगाया था ।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत सरकार ने अगस्त 1949 ई० में प्रो० पी० सी० महालनोबिस की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आय समिति का गठन किया था, जिसका उद्देश्य भारत की राष्ट्रीय आय के संबंध में अनुमान लगाना था।

सन् 1954 के बाद राष्ट्रीय आय के आँकड़ों का संकलन करने के लिए सरकार ने केन्द्रीय सांख्यिकीय संगठन (Central Statistical Organisation) की स्थापना की।

प्रति व्यक्ति आय (Per capita Income)- राष्ट्रीय आय को देश की कुल जनसंख्या से भाग देने पर जो भागफल आता है, वह प्रति व्यक्ति आय कहलाता है। फार्मूले के रूप में-

प्रतिव्यक्ति आय = राष्ट्रीय आय / कुल जनसंख्या

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राष्ट्रीय आय की गणना 

राष्ट्रीय आय की गणना अनेक प्रकार से की जाती है । 

  • जब राष्ट्रीय आय की गणना उत्पादन के योग के द्वारा किया जाता है तो उसे उत्पादन गणना विधि (Census of Production Method) कहते हैं।

जब राष्ट्रीय आय की गणना राष्ट्र के व्यक्तियों की आय के आधार पर किया जाता है तो उसे आय गणना विधि (Census of Income Method) कहते हैं।

  • जब राष्ट्रीय आय की गणना राष्ट्र के व्यक्तियों की व्यय के आधार पर किया जाता है तो उसे व्यय गणना विधि (Census of Expenditure Method) कहते हैं।
  • उत्पादित की हुई वस्तुओं का मूल्य विभिन्न परिस्थितियों में व्यक्तियों के द्वारा किए गए प्रयास से बढ़ जाता है, ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय आय की गणना को मूल्य योग विधि (Census of Value Added Method) कहते है।
  • जब राष्ट्रीय आय की गणना व्यवसायिक आधार पर किया जाता है, तो उसे व्यवसायिक गणना विधि (Census of Occupati Method) कहते हैं।

राष्ट्रीय आय की गणना में कठिनाइयाँ

(i) आँकड़ों को एकत्र करने में कठिनाई – पूरे देश के लोगों की आय के आँकड़ों को एकत्र करने में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं। यदि सही आँकड़े उपलब्ध नहीं हो तो राष्ट्र के विकास की सही स्थिति नहीं प्राप्त होती है ।

(ii) दोहरी गणना की सम्भावना (Possibility of double counting)- पूरे राष्ट्र के लोगों की उत्पादन अथवा आय के आँकड़ों को एकत्र करना सहज नहीं होता है। भौगोलिक और मानवीय संसाधन की संरचना ऐसी होती है कि कभी-कभी एक ही आय या उत्पाद को दो स्थान पर अंकित कर दिया जाता है, जिस कारण वास्तविक आय से अधिक आय दिखने लगती है।

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(iii) मूल्य के मापने में कठिनाई (Difficulty in measuring the value)- बाजार की स्थिति में प्रायः हम यह देखते हैं कि एक ही वस्तु का कई व्यापारिक स्थितियों से गुजरने के कारण उस वस्तु के मूल्य में विभिन्नता आती है । वस्तु की कीमत की यह विभिन्नता इसलिए होती है कि विक्रेताओं के एक वर्ग से दूसरे वर्ग तक जाने में उसका यातायात का खर्च, विक्रय व्यवस्था (विज्ञापन) का ख़र्च और विक्रेताओं की मुनाफे की राशि उसमें जुट जाती है।

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